2 कुरिन्थियों 3

कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का दूसरा पत्र – अध्याय 3

नये विधान की धर्मसेवा

1) क्या हम फिर अपनी प्रशंसा करने लगे? क्या कुछ अन्य लोगों की तरह यह हमारे लिए आवश्यक है कि हम आप को सिफारिशी पत्र दिखायें या आप से माँगे?

2) आप लोग तो हैं- हमारा पत्र, जो हमारे हृदय पर अंकित रहता है और जिसे सब लोग देख और पढ़ सकते हैं।

3) आप लोग निश्चय ही मसीह का वह पत्र हैं, जिसे उन्होंने हम से लिखवाया है। वह पत्र स्याही से नहीं, बल्कि जीवन्त ईश्वर के आत्मा से, पत्थर की पाटियों पर नहीं, बल्कि मानव हृदय की पाटियों पर लिखा हुआ है।

4) हम यह दावा इसलिए कर सकते हैं कि हमें मसीह के कारण ईश्वर पर भरोसा है।

5) इसका अर्थ यह नहीं कि हमारी कोई अपनी योग्यता है। हम अपने को किसी बात का श्रेय नहीं दे सकते। हमारी योग्यता का स्त्रोत ईश्वर है। उसने हमें एक नये विधान के सेवक होने के योग्य बनाया है

6) और यह विधान अक्षरों का नहीं, बल्कि आत्मा का है; क्योंकि अक्षर तो घातक हैं, किन्तु आत्मा जीवनदायक हैं।

7) उस विधान के अक्षर पत्थर पर अंकित थे और उसके द्वारा प्राणदण्ड दिया जाता था। फिर भी उसकी महिमामय घोषणा के फलस्वरूप मूसा का मुखमण्डल इतना दीप्तिमय हो गया था कि इस्राएली उस पर आँख जमाने में असमर्थ थे, यद्यपि मूसा के मुखमण्डल की दीप्ति अस्थायी थी।

8) यदि पुराना विधान इतना महिमामय था, तो आत्मा का विधान कहीं अधिक महिमामय होगा।

9) यदि दोषी ठहराने वाले विधान का सेवा-कार्य इतना महिमामय था, तो दोषमुक्त करने वाले विधान का सेवा-कार्य कहीं अधिक महिमामय होगा।

10) इस वर्तमान परमश्रेष्ठ महिमा के सामने वह पूर्ववर्ती महिमा अब निस्तेज हो गयी है।

11) यदि अस्थायी विधान इतना महिमामय था, तो चिरस्थायी विधान कहीं अधिक महिमामय होगा।

12) अपनी इस आशा के कारण हम बड़ी निर्भीकता से बोलते हैं।

13) हम मूसा के सदृश नहीं हैं। वह अपने मुख पर परदा रखा करते थे, जिससे इस्राएली उनके मुखमण्डल की मन्द हो जाने वाली नश्वर महिमा न देख पायें।

14) इस्राएलियों की बुद्धि कुण्ठित हो गयी थी और आज भी जब प्राचीन विधान पढ़ कर सुनाया जाता है, तो वही परदा लगा रहता है। वह लगा रहता है, क्योंकि उसे मसीह ही हटा सकते हैं।

15) जब मूसा का ग्रन्थ पढ़ कर सुनाया जाता है, तो उनके मन पर आज भी वह परदा पड़ा रहता है।

16) किन्तु जब कोई प्रभु की ओर अभिमुख हो जाता है, तो वह परदा हटा दिया जाता है;

17) क्योंकि प्रभु तो आत्मा है, और जहाँ प्रभु का आत्मा है, वहाँ स्वतन्त्रता है।

18) जहाँ तक हम सबों का प्रश्न है, हमारे मुख पर परदा नहीं है और हम सब दर्पण की तरह प्रभु की महिमा प्रतिबिम्बित करते हैं। इस प्रकार हम धीरे-धीरे उसके महिमामय प्रतिरूप में रूपान्तरित हो जाते हैं और वह रूपान्तरण प्रभु अर्थात् आत्मा का कार्य है।

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