स्तोत्र ग्रन्थ – 58

Psalm 58 || भजन संहिता 58

2 (1-2) शासकों! क्या तुम्हारे निर्णय सही हैं? क्या तुम उचित रीति से न्याय करते हो?

3) नहीं! तुम जान कर अपराध करते हो; पृथ्वी पर तुम्हारे हाथों के अन्याय का भार है।

4) दुष्ट जन गर्भ से दूषित हैं; मिथ्यावादी जन्म से भटकते हैं।

5) उनका विष साँप के विष-जैसा है, उस बहरे साँप के विष-जैसा, जो अपना कान बन्द कर लेता है,

6) जो सँपेरों की वाणी नहीं सुनता, जिस पर कुशल जादूगर के मन्त्रों का प्रभाव नहीं पड़ता।

7) ईश्वर! उनके दाँत उनके मुँह में तोड़ दे। प्रभु! उन सिंहों की दाढ़ों को टुकड़े-टुकड़े कर दे।

8) वे बहते पानी की तरह लुप्त हो जायें, वे रौंदी हुई घास की तरह मुरझायें,

9) वे घोंघे की तरह हो, जो स्वयं घुल जाता है, असमय गिरे हुए गर्भ की तरह, जो सूर्य का प्रकाश नहीं देखता।

10) बवण्डर उन्हें कँटीली झाड़ी या ऊँटकटारे की तरह अचानक उड़ा ले जाये।

11) धर्मी प्रतिशोध देख कर प्रसन्न होगा। वह दुष्टों के रक्त में अपने पैर धोयेगा।

12) मनुष्य यह कहेंगे-“सच है: धर्मी को पुरस्कार मिलता है; सच है: ईश्वर है, जो पृथ्वी पर न्याय करता है।”

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