लूकस अध्याय 10

सन्त लूकस का सुसमाचार – अध्याय 10

लूकस अध्याय 10

लूकस अध्याय 10 का परिचय

संत लूकस रचित सुसमाचार अध्याय 10 में नीचे दिए गए महत्वपूर्ण बातों को देख सकते हैं :-

बहत्तर शिष्यों का प्रेषण – प्रभु येसु अपने बहत्तर शिष्यों को अपने आगे यह शिक्षा देने भेजे, ’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’। जहाँ प्रभु येसु हैं वही ईश्वर का राज्य है, क्योंकि प्रभु येसु ही राजा हैं। आज भी प्रभु येसु की प्रार्थना लहू होती है, “फ़सल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं; इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।”

अविश्वासी नगरों को धिक्कार – प्रभु दो नगरों, खोराजि़न और कफ़रनाहूम, को धिक्कारते हैं; क्योंकि प्रभु येसु के कार्यों को देखते हुए भी, वे प्रभु में विश्वास नहीं कर पाए। क्या यह हमारे जीवन में भी नहीं होती? कहीं प्रभु दोनों शहरों के जगह पर हमारे नाम तो नहीं लेंगे?

बहत्तर शिष्यों का लौटना – प्रभु कलीसिया के सदस्यों के द्वारा अपना कार्य करते हैं। इसलिए सबों को अलग-अलग वरदान दिया गया है। हमें लोगों को इन वरदानों के आधार पर लोगों को मापना नहीं है। स्वर्ग में सबों को बराबर स्थान मिलेगा, क्योंकि सभी ईश्वर की संतान हैं।

भोलेपन की प्रशंसा – स्वर्गराज्य के रहस्यों को जानना का वरदान सबको नहीं दिया गया है। ईश्वर नम्र लोगों को पर ही अपने रहस्यों को प्रकट करते हैं।

सब से बड़ी आज्ञा – ईश्वर को “अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि से” प्यार करना ही सबसे बड़ी आज्ञा है और अपने पडोसी को अपने समान प्यार करना उसका प्रकटीकरण है।

भले समारी का दृष्टान्त – संत लूकस में प्रभु येसु के अधिकतर उदाहरण गैर-यहूदियों का रहता है। वैसे ही इस प्रसिद्ध दृष्टान्त में भी प्रभु येसु एक समारी, एक गैर-यहूदी, का उदाहरण देते हैं। वास्तव में प्रभु येसु स्वयं ही यह भला समारी हैं।

मरथा और मरियम – यह परिवार प्रभु येसु के लिए एक विशेष परिवार था। जब भी प्रभु उस रास्ते जाते, वे जरूर इनके घर ठहरा करते थे। उनकी मृत्यु के पहले भी प्रभु इनके घर गए हुए थे। अध्याय 10 में जो वर्णन है, शायद यह परली बार होगा। इस घटना के द्वारा प्रभु कुछ महत्वपूर्ण बातों को हम पर प्रकट करते हैं। उनमें दो बातें इस प्रकार हैं – ईश्वर हमें अवसर देते हैं। चुनने की स्वतंत्रता हमारी है। दूसरी है – बहुत सारे कामों में व्यस्त रहने से बेहतर प्रभु के पास बैठकर उनकी सुनना है जो मरियम चुनी थी।

बहत्तर शिष्यों का प्रेषण

1) इसके बाद प्रभु ने अन्य बहत्तर शिष्य नियुक्त किये और जिस-जिस नगर और गाँव में वे स्वयं जाने वाले थे, वहाँ दो-दो करके उन्हें अपने आगे भेजा।

2) उन्होंने उन से कहा, “फ़सल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं; इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।

3) जाओ, मैं तुम्हें भेडि़यों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ।

4) तुम न थैली, न झोली और न जूते ले जाओ और रास्तें में किसी को नमस्कार मत करो।

5) जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, ’इस घर को शान्ति!’

6) यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।

7) उसी घर में ठहरे रहो और उनके पास जो हो, वही खाओ-पियो; क्योंकि मज़दूर को मज़दूरी का अधिकार है। घर पर घर बदलते न रहो।

8) जिस नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत करते हैं, तो जो कुछ तुम्हें परोसा जाये, वही खा लो।

9) वहाँ के रोगियों को चंगा करो और उन से कहो, ’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’।

10) परन्तु यदि किसी नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत नहीं करते, तो वहाँ के बाज़ारों में जा कर कहो,

11 ’अपने पैरों में लगी तुम्हारे नगर की धूल तक हम तुम्हारे सामने झाड़ देते हैं। तब भी यह जान लो कि ईश्वर का राज्य आ गया है।’

12) मैं तुम से यह कहता हूँ – न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

अविश्वासी नगरों को धिक्कार

13) “धिक्कार तुझे, खोराजि़न! धिक्कार तुझे, बेथसाइदा! जो चमत्कार तुम में किये गये हैं, यदि वे तीरुस और सीदोन में किये गये होते, तो उन्होंने न जाने कब से टाट ओढ़ कर और भस्म रमा कर पश्चात्ताप किया होता।

14) इसलिए न्याय के दिन तुम्हारी दशा की अपेक्षा तीरुस और सिदोन की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

15) और तू, कफ़रनाहूम! क्या तू स्वर्ग तक ऊँचा उठाया जायेगा? नहीं, तू अधोलोक तक नीचे गिरा दिया जायेगा?

16) “जो तुम्हारी सुनता है, वह मेरी सुनता है और जो तुम्हारा तिरस्कार करता है, वह मेरा तिरस्कार करता है। जो मेरा तिरस्कार करता है, वह उसका तिरस्कार करता है, जिसने मुझे भेजा है।”

बहत्तर शिष्यों का लौटना

17) बहत्तर शिष्य सानन्द लौटे और बोले, “प्रभु! आपके नाम के कारण अपदूत भी हमारे अधीन होते हैं”।

18) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, “मैंने शैतान को बिजली की तरह स्वर्ग से गिरते देखा।

19) मैंने तुम्हें साँपों, बिच्छुओं और बैरी की सारी शक्ति को कुचलने का सामर्थ्य दिया है। कुछ भी तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकेगा।

20) लेकिन, इसलिए आनन्दित न हो कि अपदूत तुम्हारे अधीन हैं, बल्कि इसलिए आनन्दित हो कि तुम्हारे नाम स्वर्ग में लिखे हुए हैं।”

भोलेपन की प्रशंसा

21) उसी घड़ी ईसा ने पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर आनन्द के आवेश में कहा, “पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ, क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है। हाँ, पिता, यही तुझे अच्छा लगा

22) मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर यह कोई भी नहीं जानता कि पुत्र कौन है और पुत्र को छोड़ कर यह कोई नहीं जानता कि पिता कौन है। केवल वही जानता है, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करता है।”

23) तब उन्होंने अपने शिष्यों की ओर मुड़ कर एकान्त में उन से कहा, “धन्य हैं वे आँखें, जो वह देखती हैं जिसे तुम देख रहे हो!

24) क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ – तुम जो बातें देख रहे हो, उन्हें कितने ही नबी और राजा देखना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं देखा और जो बातें तुम सुन रहे हो, वे उन्हें सुनना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं सुना।”

सब से बड़ी आज्ञा

25) किसी दिन एक शास्त्री आया और ईसा की परीक्षा करने के लिए उसने यह पूछा, “गुरूवर! अनन्त जीवन का अधिकारी होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?”

26) ईसा ने उस से कहा, “संहिता में क्या लिखा है?” तुम उस में क्या पढ़ते हो?”

27) उसने उत्तर दिया, “अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो”।

28) ईसा ने उस से कहा, “तुमने ठीक उत्तर दिया। यही करो और तुम जीवन प्राप्त करोगे।”

भले समारी का दृष्टान्त

29) इस पर उसने अपने प्रश्न की सार्थकता दिखलाने के लिए ईसा से कहा, “लेकिन मेरा पड़ोसी कौन है?”

30) ईसा ने उसे उत्तर दिया, “एक मनुष्य येरूसालेम से येरीख़ो जा रहा था और वह डाकुओं के हाथों पड़ गया। उन्होंने उसे लूट लिया, घायल किया और अधमरा छोड़ कर चले गये।

31) संयोग से एक याजक उसी राह से जा रहा था और उसे देख कर कतरा कर चला गया।

32) इसी प्रकार वहाँ एक लेवी आया और उसे देख कर वह भी कतरा कर चला गया।

33) इसके बाद वहाँ एक समारी यात्री आया और उसे देख कर उस को तरस हो आया।

34) वह उसके पास गया और उसने उसके घावों पर तेल और अंगूरी डाल कर पट्टी बाँधी। तब वह उसे अपनी ही सवारी पर बैठा कर एक सराय ले गया और उसने उसकी सेवा शुश्रूषा की।

35) दूसरे दिन उसने दो दीनार निकाल कर मालिक को दिये और उस से कहा, ’आप इसकी सेवा-शुश्रूषा करें। यदि कुछ और ख़र्च हो जाये, तो मैं लौटते समय आप को चुका दूँगा।’

36) तुम्हारी राय में उन तीनों में कौन डाकुओं के हाथों पड़े उस मनुष्य का पड़ोसी निकला?”

37) उसने उत्तर दिया, “वही जिसने उस पर दया की”। ईसा बोले, “जाओ, तुम भी ऐसा करो”।

मरथा और मरियम

38) ईसा यात्रा करते-करते एक गाँव आये और मरथा नामक महिला ने अपने यहाँ उनका स्वागत किया।

39) उसके मरियम नामक एक बहन थी, जो प्रभु के चरणों में बैठ कर उनकी शिक्षा सुनती रही।

40) परन्तु मरथा सेवा-सत्कार के अनेक कार्यों में व्यस्त थी। उसने पास आ कर कहा, “प्रभु! क्या आप यह ठीक समझते हैं कि मेरी बहन ने सेवा-सत्कार का पूरा भार मुझ पर ही छोड़ दिया है? उस से कहिए कि वह मेरी सहायता करे।”

41) प्रभु ने उसे उत्तर दिया, “मरथा! मरथा! तुम बहुत-सी बातों के विषय में चिन्तित और व्यस्त हो;

42) फिर भी एक ही बात आवश्यक है। मरियम ने सब से उत्तम भाग चुन लिया है; वह उस से नहीं लिया जायेगा।”

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In the Gospel Chapter 10 of Saint Luke, you can see the following important points:-

The Mission of the Seventy-Two – Lord Jesus sent his seventy-two disciples to teach before him, ‘The kingdom of God has come near to you’. Where the Lord Jesus is, that is the kingdom of God, because the Lord Jesus is the king. Even today the prayer of the Lord Jesus is blood, “The harvest is plentiful, but the workers are few; therefore, beseech the owner of the harvest to send laborers to reap his harvest.”

Woes to Unrepentant Cities – the Lord curses two cities, Chora′zin and Caper′na-um; Because even after seeing the actions of the Lord Jesus, they could not believe in the Lord. Doesn’t this happen in our lives as well? Won’t the Lord take our names in place of both cities?

The Return of the Seventy-two Disciples – The Lord does His work through the members of the church. That’s why everyone has been given a different boon. We don’t have to measure people on the basis of these gifts. Everyone will get an equal place in heaven, because all are children of God.

Jesus Rejoices – Not everyone has been given the gift of knowing the secrets of the kingdom of heaven. God reveals his secrets only to the humble.

The Greatest Commandment – To love God “with all your heart, with all your soul, with all your strength and with all your mind” is the greatest commandment and to love one’s neighbour as oneself is a manifestation of that.

The Parable of the Good Samaritan – Most examples of the Lord Jesus in Saint Luke are of Gentiles. Similarly, in this famous parable, the Lord Jesus gives the example of a Samaritan, a Gentile. Indeed, Lord Jesus, Himself is this good Samaritan.

Jesus visits Martha and Mary – This family was a special family for the Lord Jesus. Whenever the Lord went that way, He would definitely stay at their house. Even before his death, the Lord had gone to his house. As described in Chapter 10, it will probably be the second time. Through this incident, the Lord reveals some important things to us. There are two things in them as follows – God gives us opportunities. We have the freedom to choose. The second is – it is better to sit beside the Lord and listen to what Mary chose than to be busy with many things.