रोमी अध्याय 6

रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र – अध्याय 6

पाप और मृत्यु पर विजय

1) क्या इसका अर्थ यह है कि हमें पाप करते रहना चाहिए, ताकि अनुग्रह की वृद्धि हो?

2) एकदम नहीं! हम सब-के-सब पाप की ओर से मर चुके हैं, तो हम अब कैसे पाप में जीते रहेंगे?

3) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि ईसा मसीह का तो बपतिस्मा हम सबों को मिला है, वह उनकी मृत्यु का बपतिस्मा हैं?

4) हम उनकी मृत्यु का बपतिस्मा ग्रहण कर उनके साथ इसलिए दफनाये गये हैं कि जिस तरह मसीह पिता के सामर्थ्य से मृतकों में से जी उठे हैं, उसी तरह हम भी एक नया जीवन जीयें।

5) यदि हम इस प्रकार उनके साथ मर कर उनके साथ एक हो गये हैं, तो हमें भी उन्हीं की तरह जी उठना चाहिए।

6) हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा पुराना स्वभाव उन्हीं के साथ क्रूस पर चढ़ाया जा चुका हैं, जिससे पाप का शरीर मर जाये और हम फिर पाप के दास न बने;

7) क्योंकि जो मर चुका है, वह पाप की गुलामी से मुक्त हो गया हैं।

8) हमें विश्वास है कि यदि हम मसीह के साथ मर गये हैं, तो हम उन्ही के जीवन के भी भागी होंगे;

9) क्योंकि हम जानते हैं कि मसीह मृतको में से जी उठने के बाद फिर कभी नहीं मरेंगे। अब मृत्यु का उन पर कोई वश नहीं।

10) वह पाप का हिसाब चुकाने के लिए एक बार मर गये और अब वह ईश्वर के लिए ही जीते हैं।

11) आप लोग भी अपने को ऐसा ही समझें-पाप के लिए मरा हुआ और ईसा मसीह में ईश्वर के लिए जीवित।

12) अब आप लोग अपने मरणशील शरीर में पाप का राज्य स्वीकार नहीं करें और उनकी वासनाओं के अधीन नहीं रहें।

13) आप अपने अंगों को अधर्म के साधन बनने के लिए पाप को अर्पित नहीं करें। आप अपने को मृतकों में से पुनर्जीवित समझकर ईश्वर के प्रति अर्पित करें और अपने अंगों को धार्मिकता के साधन बनने के लिए ईश्वर को सौंपदें।

14) आप लोगों पर पाप का कोई अधिकार नहीं रहेगा। अब आप संहिता के नहीं, बल्कि अनुग्रह के अधीन हैं।

धार्मिकता के अधीन

15) तो क्या, हम इसलिए पाप करें कि हम संहिता के नहीं, बल्कि अनुग्रह के अधीन है? कभी नहीं!

16) क्या आप यह नहीं समझते कि आप अपने को आज्ञाकारी दास के रूप में जिसके प्रति अर्पित करते हैं और जिसकी आज्ञा का पालन करते हैं, आप उसी के दास बन जाते हैं? यह दासता चाहे पाप की हो, जिसका परिणाम मृत्यु है; चाहे ईश्वर की हो, जिसके आज्ञापालन का परिणाम धार्मिकता है।

17) ईश्वर को धन्यवाद कि आप लोग, जो पहले पाप के दास थे, अब सारे हृदय से उस शिक्षा के मार्ग पर चलने लगे, जो आप को प्रदान की गयी हैं।

18) आप पाप से मुक्त हो कर धार्मिकता के दास बन गये हैं।

19) मैं आपकी मानवीय दुर्बलता के कारण साधारण मानव जीवन का उदाहरण दे रहा हूँ। आप लोगों ने जिस तरह पहले अपने शरीर को अशुद्धता और अधर्म के अधीन किया था, जिससे वह दूषित हो गया था, उसी तरह अब आप को अपने शरीर को धार्मिकता के अधीन करना चाहिए, जिससे वह पवित्र हो जाये।

20) क्योंकि जब आप पाप के दास थे, तो धार्मिकता के नियंत्रण से मुक्त थे।

21) उस समय आप को उन कर्मों से क्या लाभ हुआ? अब उनके कारण आप को लज्जा होती हैं; क्योंकि उनका परिणाम मृत्यु हैं।

22) किंतु अब पाप से मुक्त हो कर आप ईश्वर के दास बन गये और पवित्रता का फल उत्पन्न कर रहे हैं जिसका परिणाम है अनन्त जीवन;

23) क्योंकि पाप का वेतन मृत्यु है, किंतु ईश्वर का वरदान है- हमारे प्रभु ईसा मसीह में अनन्त जीवन।

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