सन्त लूकस का सुसमाचार – अध्याय 14
लूकस अध्याय 14 का परिचय संत लूकस रचित सुसमाचार अध्याय 14 में हम चार दृष्टान्तों को देख सकते हैं। इस अध्याय में निम्न महत्वपूर्ण बातों को देख सकते हैं :- विश्राम के दिन चंगाई – प्रभु येसु नये विधान के द्वारा नयी शिक्षा दिए हैं। पुराने विधान में नियमों को लिखित कानून के रूप में लोग पालन करते थे; लेकिन प्रभु येसु उनके पीछे के कारण को देखते और उसके अनुसार उनका पालन करने की भी शिक्षा दिया करते थे। मुख्यस्थान और अतिथि – हम मनुष्य अपने आपको बहुत ही महत्त्वपूर्ण समझते हैं। स्वाभाविक रूप से अपनी दुनिया का केंद्र हम हर एक अपने आपको ही मानते हैं। लेकिन प्रभु सबसे छोटा और सबसे आखरी बनने के बारे में हमें शिक्षा देते हैं। परोपकार का उपदेश – जिनके बास कुछ भी नहीं है, उन्हें भोजन में बुलाने प्रभु हमें शिक्षा देते हैं। लाज़रुस और धनी के दृष्टान्त और न्याय के दिन के बारे में भी प्रभु की शिक्षा में पाते हैं कि सबसे गरीब लोग प्रभु के प्यारे और प्रिय हैं। स्वर्ग जाने का सबसे स्पष्ट माध्यम उन्हीं लोग हैं। भोज का दृष्टान्त – स्वर्गराज्य के भोज में भाग लेना आसान नहीं होगा। इस दृष्टान्त के द्वारा प्रभु येसु हमें बताते हैं कि जो कोई ईश्वर और उनके राज्य को प्रतम स्थान नहीं देते हैं, वे उस राज्य में प्रवेश नहीं कर पाएंगे। आत्मत्याग – पिछले दृष्टान्त का समापन है आत्मत्याग की यह शिक्षा। मीनार बनवाने वाले का दृष्टान्त – हम कोई भी कार्य करने से पहले बैठकर हिसाब करते हैं। अपनी क्षमता के अंदर होने से ही हम कुछ भी शुरू करते हैं। अन्यथा वह काम पूरा नहीं हो सकता। उसी प्रकार हमें भी प्रभु के शिष्य बनने के लिए पूरा हिसाब करके आगे बढ़ने की शिक्षा प्रभु हमें देते हैं। आत्मत्याग के बारे में समझने प्रभु हमें यह दृष्टान्त सुनाते हैं। युध्द करने वाले राजा का दृष्टान्त – पिछले दृष्टान्त के समान यह दृष्टान्त भी आत्मत्याग के बारे में है। आत्मत्याग के बिना कोई भी प्रभु का शिष्य नहीं बन सकता। नमक का दृष्टान्त – जैसे नमक का गुण ख़तम हो जाये, तो वह बेकार हो जाता है और फेंक दिया जाता हैं। उसी प्रकार प्रभु के लिए अपने आपको अर्पित नहीं किया हुआ जीवन भी बेकार हो जाता है जैसे संत योहन मरियम वियान्नी ने कहा, “जो कार्य प्रभु को अर्पित किये बिना किया जाता है, वह बेकार जाता है। |
विश्राम के दिन आतिथ्य-सत्कार
1) ईसा किसी विश्राम के दिन एक प्रमुख फ़रीसी के यहाँ भोजन करने गये। वे लोग उनकी निगरानी कर रहे थे।
2) ईसा ने अपने सामने जलोदर से पीड़ित एक मनुष्य को देख कर
3) शास्त्रियों तथा फ़रीसियों से यह कहा, “विश्राम के दिन चंगा करना उचित है या नहीं?”
4) वे चुप रहे। इस पर ईसा ने जलोदर-पीड़ित का हाथ पकड़ कर उसे अच्छा कर दिया और विदा किया।
5) तब ईसा ने उन से कहा, “यदि तुम्हारा पुत्र या बैल कुएँ में गिर पड़े, तो तुम लोगों में ऐसा कौन है, जो उसे विश्राम के दिन ही तुरन्त बाहर निकाल नहीं लेगा?”
6) और वे ईसा को कोई उत्तर नहीं दे सके।
मुख्यस्थान और अतिथि
7) ईसा ने अतिथियों को मुख्य-मुख्य स्थान चुनते देख कर उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया,
8) “विवाह में निमन्त्रित होने पर सब से अगले स्थान पर मत बैठो। कहीं ऐसा न हो कि तुम से प्रतिष्ठित कोई अतिथि निमन्त्रित हो
9) और जिसने तुम दोनों को निमन्त्रण दिया है, वह आ कर तुम से कहे, ’इन्हें अपनी जगह दीजिए’ और तुम्हें लज्जित हो कर सब से पिछले स्थान पर बैठना पड़े।
10) परन्तु जब तुम्हें निमन्त्रण मिले, तो जा कर सब से पिछले स्थान पर बैठो, जिससे निमन्त्रण देने वाला आ कर तुम से यह कहे, ’बन्धु! आगे बढ़ कर बैठिए’। इस प्रकार सभी अतिथियों के सामने तुम्हारा सम्मान होगा;
11) क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।”
परोपकार का उपदेश
12) फिर ईसा ने अपने निमन्त्रण देने वाले से कहा, “जब तुम दोपहर या शाम का भोज दो, तो न तो अपने मित्रों को बुलाओ और न अपने भाइयों को, न अपने कुटुम्बियों को और न धनी पड़ोसियों को। कहीं ऐसा न हो कि वे भी तुम्हें निमन्त्रण दे कर बदला चुका दें।
13) पर जब तुम भोज दो, तो कंगालों, लूलों, लँगड़ों और अन्धों को बुलाओ।
14) तुम धन्य होगे कि बदला चुकाने के लिए उनके पास कुछ नहीं है, क्योंकि धर्मियों के पुनरूत्थान के समय तुम्हारा बदला चुका दिया जायेगा।”
भोज का दृष्टान्त
15) साथ भोजन करने वालों में किसी ने यह सुन कर ईसा से कहा, “धन्य है वह, जो ईश्वर के राज्य में भोजन करेगा!”
16) ईसा ने उत्तर दिया, “किसी मनुष्य ने एक बड़े भोज का आयोजन किया और बहुत-से लोगों को निमन्त्रण दिया।
17) भोजन के समय उसने अपने सेवक द्वारा निमन्त्रित लोगों को यह कहला भेजा कि आइए, क्योंकि अब सब कुछ तैयार है।
18) लेकिन वे सभी बहाना करने लगे। पहले ने कहा, ’मैंने खेत मोल लिया है और मुझे उसे देखने जाना है। तुम से मेरा निवेदन है, मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।’
19) दूसरे ने कहा, ’मैंने पाँच जोड़े बैल ख़रीदे हैं और उन्हें परखने जा रहा हूँ। तुम से मेरा निवेदन है, मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।’
20) और एक ने कहा, “मैंने विवाह किया है, इसलिए मैं नहीं आ सकता’।
21) सेवक ने लौट कर यह सब स्वामी को बता दिया। तब घर के स्वामी ने क्रुद्ध हो कर अपने सेवक से कहा, ’शीघ्र ही नगर के बाज़ारों और गलियों में जा कर कंगालों, लूलों, अन्धों और लँगड़ों को यहाँ बुला लाओ’।
22) जब सेवक ने कहा, ’स्वामी! आपकी आज्ञा का पालन किया गया है; तब भी जगह है’,
23) तो स्वामी ने नौकर से कहा, ’सड़कों पर और बाड़ों के आसपास जा कर लोगों को भीतर आने के लिए बाध्य करो, जिससे मेरा घर भर जाये;
24) क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, उन निमन्त्रित लोगों में कोई भी मेरे भोजन का स्वाद नहीं ले पायेगा’।”
25) ईसा के साथ-साथ एक विशाल जन-समूह चल रहा था। उन्होंने मुड़ कर लोगों से कहा,
आत्मत्याग
26) “यदि कोई मेरे पास आता है और अपने माता-पिता, पत्नी, सन्तान, भाई बहनों और यहाँ तक कि अपने जीवन से बैर नहीं करता, तो वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।
27) जो अपना क्रूस उठा कर मेरा अनुसरण नहीं करता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।
मीनार बनवाने वाले का दृष्टान्त
28) “तुम में ऐसा कौन होगा, जो मीनार बनवाना चाहे और पहले बैठ कर ख़र्च का हिसाब न लगाये और यह न देखे कि क्या उसे पूरा करने की पूँजी उसके पास है?
29) कहीं ऐसा न हो कि नींव डालने के बाद वह पूरा न कर सके और देखने वाले यह कहते हुए उसकी हँसी उड़ाने लगें,
30 ’इस मनुष्य ने निर्माण-कार्य प्रारम्भ तो किया, किन्तु यह उसे पूरा नहीं कर सका’।
युध्द करने वाले राजा का दृष्टान्त
31) “अथवा कौन ऐसा राजा होगा, जो दूसरे राजा से युद्ध करने जाता हो और पहले बैठ कर यह विचार न करे कि जो बीस हज़ार की फ़ौज के साथ उस पर चढ़ा आ रहा है, क्या वह दस हज़ार की फौज़ से उसका सामना कर सकता है?
32) यदि वह सामना नहीं कर सकता, तो जब तक दूसरा राजा दूर है, वह राजदूतों को भेज कर सन्धि के लिए निवेदन करेगा।
33) “इसी तरह तुम में जो अपना सब कुछ नहीं त्याग देता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।
नमक का दृष्टान्त
34) “नमक अच्छी चीज है, किन्तु यदि वह स्वयं अपना गुण खो देता है, तो वह किस से छौंका जायेगा?
35) वह न तो जमीन के लिए किसी काम का रह जाता है और न खाद के लिए। लोग उसे बाहर फेंक देते हैं। जिसके सुनने के कान हों, वह सुन ले।”
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